आजकल अखबारों में हिंदुस्तान का नक्शा विविध रंगों में प्रस्तुत किया जा रहा है। कुछ-कुछ क्षेत्र लाल रंग से रंगे हैं, कुछ नारंगी और कुछ हरे रंग से। रंग संक्रमित लोगों की संख्या का संकेत देते हैं। हर पहर रंग बदल रहे हैं। कहते हैं कि मानसरोवर झील का पानी सुबह जिस रंग का आभास देता है, दोपहर में वह रंग बदल जाता है। पहाड़ों से घिरी झील में सूर्य किरण के बदलते हुए कोण के कारण यह इंद्रधनुषी प्रभाव पैदा होता है। मनुष्य मन भी मानसरोवर की तरह है। परिस्थितियों के कोण से इसे विविध रंग देते हैं। एक मनुष्य सुबह अपने परिवार के साथ करुणामय बना रहता है, दफ्तर में वह तल्ख हो जाता है, भीड़ का हिस्सा बनते ही उसके हाथ में पत्थर होता है। वह हुड़दंगी हो जाता है।
मानव त्वचा के रंग ने कहर ढाया है। अमेरिका के समाज में सतह के नीचे रंगभेद की लहर आज भी प्रवाहित है। भारत में कन्या की त्वचा का रंग दहेज की रकम में अंतर पैदा करता है। अखबार में विवाह के लिए दिए गए विज्ञापन में भी त्वचा का रंग मोल-भाव बदल देता है। फिल्में भी विविध रंग की रही हैं। लंबे समय तक श्याम-श्वेत फिल्में बनती रहीं। ‘आन’ और ‘झांसी की रानी’ रंगीन थीं, परंतु शम्मी कपूर अभिनीत ‘जंगली’ से रंग का दौर शुरू हुआ। शैलेंद्र ने रंग के दौर में भी ‘तीसरी कसम’ श्याम-श्वेत बनाई। रंगीन फिल्म से वे अभावभरी जिंदगी को ग्लैमराइज नहीं करना चाहते थे। बिहार की श्याम सलोनी भूमि पर वे रंग से दाग नहीं लगाना चाहते थे। श्याम-श्वेत फिल्म में कैमरामैन को अपनी योग्यता का परिचय देना होता है। रंगीन फिल्मों के बनते ही कैमरामैन का जादू टूट गया।
के.आसिफ की ‘मुग़ल-ए-आज़म’ श्याम-श्वेत थी, परंतु दो गाने रंग में प्रस्तुत किए गए। कुछ वर्ष पश्चात पूरी फिल्म को रंगीन किया गया। यह महंगी विधा है, क्योंकि हर फ्रेम को रंगना होता है। बाद में बलदेव राज चोपड़ा ने अपनी ‘नया दौर’ को भी रंगीन किया, परंतु इसे दर्शक नहीं मिले।
इस तरह एक खर्चीली और अनावश्यक कवायद पर रोक लग गई। ईस्टमैन कलर, टेक्नी कलर, आगफा कलर इत्यादि रंगीन नेगेटिव के ब्रैंड नाम हैं। रंगीन निगेटिव के इमल्शन में अंतर आता है। इसलिए सजग फिल्मकार अपना पूरा निगेटिव एक ही लॉट से खरीद लेते थे। शूटिंग पूरी करने के बाद फिल्म रसायनशाला में हर प्रेम का कलर करेक्शन किया जाता है ताकि समरूपता दिखाई दे।
गुरु दत्त के कैमरामैन वीके मूर्ति श्याम-श्वेत फिल्म में प्रकाश और छाया के संयोजन द्वारा पात्रों के मनोभाव प्रस्तुत करते थे। यह ‘मुग़ल-ए-आज़म’ के कैमरामैन आर.डी. माथुर का कमाल है कि कांच के टुकड़ों से बनाए सेट पर वे काम कर पाए। विश्व सिनेमा में पहली बार एक चादर पर प्रकाश डालकर परिवर्तित किरणों के प्रकाश में शूटिंग की गई। सत्यजीत रे ने भी इसी तरीके को अपनाया। कैमरामैन एक पेंटर की तरह प्रकाश और छाया की कूंचियों से कलाकृति रचता है।
क्या यह महज इत्तफाक है कि रमेश सिप्पी ‘शोले’ के बाद उससे बेहतर फिल्म नहीं बना पाए। ‘शोले’ के कैमरामैन द्वारका दिवेचा की मृत्यु के बाद रमेश सिप्पी भी वह जादू नहीं जगा पाए। याद आता है दृश्य जिसमें ठाकुर की हवेली में कक्ष दर कक्ष बत्ती गुल की जा रही है। एक रोशन खिड़की में जया बच्चन खड़ी हैं। मानो खिड़की की फ्रेम में एक उदासी कैद है। प्रकाश छाया संयोजन से ऐसा जादू जगाया जाता है। फिल्म ‘श्री 420’ के दृश्य में गरीबों की बस्ती के निकट ही लोकल ट्रेन के आने-जाने को प्रस्तुत किया गया है। स्टूडियो के सेट पर यह प्रभाव बच्चों के खेलने की ट्रेन से पैदा किया गया है।
राधू करमाकर ने राज कपूर की ‘आवारा’ से ‘राम तेरी गंगा मैली’ तक फिल्मों की फोटोग्राफी की है। उन्होंने सोहनलाल कंवर इत्यादि की फिल्में भी की, परंतु वह प्रभाव उत्पन्न नहीं हो सका। उन्होंने बताया कि प्रभाव दो बातों पर निर्भर करता है। फिल्मकार कैमरामैन को कितने लेंस और लाइट उपलब्ध कराता है और सबसे महत्वपूर्ण है कि क्या फिल्मकार कैमरामैन को अपनी आंख की तरह इस्तेमाल करना जानता है।
कैमरामैन वी.के. रेड्डी गुरु दत्त की खामोशी को भी पढ़ लेते थे। फिल्म माध्यम निर्देशक का माध्यम है।
कुछ निर्देशक तो इतने अनाड़ी थे कि कैमरामैन को साफ-सुथरी जगह कैमरा रखने का मशविरा देते थे, क्योंकि उन्हें खुद नहीं मालूम था कि क्या करना है। प्रकाश और छाया का प्रयोग संवेदनशीलता से किया जाना चाहिए। कैमरा एक मशीन है जिसमें प्राण फूंकता है कैमरामैन। बहरहाल रंग प्रतीकात्मक होते हैं। मात्र काले रंग के वस्त्र धारण करने से दु:ख अभिव्यक्त नहीं होता। शफ्फाख सफेद द्वारा भी मायूसी बयां की जाती है।
कुछ राजनीतिक विचारधाराएं भी रंग को प्रतीक की तरह उपयोग में लाती हैं। खून का रंग लाल होता है, परंतु बेईमान व्यक्ति का खून सफेद माना जाता है। मुद्राएं भी स्याह-सफेद होती हैं। राष्ट्रीय झंडे के रंग भी उसके संविधान का परिचय देते हैं। राजशेखर ने ‘तनु वेड्स मनु’ के लिए गीत लिखा... ‘रंगरेज तू ही बता कौन से पानी में तूने कौन सा रंग घोला है। खाकर अफीम रंगरेज पूछे रंग का कारोबार क्या है।’ कुछ व्यवस्थाएं भी ऐसे रंगरेज की तरह होती हैं। समवेत प्रार्थना है कि मानवता कोरोना से मुक्त हो और बीमारों की संख्या रंग द्वारा अभिव्यक्त नहीं करनी पड़े।
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