जीवन, जीवटता, जज्बा, जुनून, और जिंदगी यह सबकुछ जिस नाम से जुड़ा है, वोहैमेजर देवेंद्र पाल सिंह उर्फ डीपी सिंह का। करगिल वॉर के योद्धा डीपी सिंह ने सीडीएस परीक्षा पास करने के बाद 1995 में इंडियन मिलिट्री एकेडमी ज्वाइन की। 1999 में जब वो करगिल युद्ध लड़ रहे थे, तो उम्र महज 25 साल थी। युद्ध में लड़ते हुए वो घायल हो गए। उन्हें तो डॉक्टरों ने मृत घोषित कर दिया था। लेकिन, वो भला इतनी जल्दी हार मानने वाले कहां थे।
तारीख 13 जुलाई 1999, सुबह का समय था। डीपी सिंह जम्मू-कश्मीर के अखनूर सेक्टर में सरहद पर बनी एक पोस्ट संभाले हुए थे। उनकी टीम में 30 जवान थे। सन्नाटा पसरा था यहां, गोलीबारी बंद थी। दुश्मन की पोस्ट उनकी पोस्ट से 80 मीटर की दूरी पर थी। दो दिन बाद यानी 15 जुलाई को फायरिंग फिर से शुरू हो गई। वोअपने बंकर के बाहर मोर्चा संभाले हुए थे। तभी दुश्मनों ने दो मोर्टार दागे। पहले से तो वोबच गए लेकिन दूसरा ठीक उनके बगल में 1.5 मीटर की दूरी पर आ गिरा। तेज धमाका हुआ, वोजमीन पर गिर पड़े।
वोबुरी तरह घायल हो गए। उनका एक पैर बुरी तरह जख्मी हो चुका था, बाकी शरीर पर 40 से ज्यादा घाव थे। शरीर से खून के फव्वारे उड़ रहे थे। उनके चार साथियों ने अपनी जान की परवाह किए बिना उनको वहां से गोलीबारी के बीच से एक सुरक्षित जगह पर पहुंचाया और ढाई घंटे बाद वो अखनूर के अस्पताल पहुंचे। वहां आते ही डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया।
लेकिन कहते हैं न जाको राखे साइयां मार सके न कोय। किस्मत से उस दिन एक सीनियर डॉक्टर विजिट पर उसी अस्पताल में पहुंचे, जहां डीपी सिंह को लाया गया था। उन्होंने देखा कि जिसे डेड डिक्लेयर किया गया है, उसकी तो सांसें चल रहीं हैं। उन्होंने कोशिश की और डीपी बच गए।
वो बताते हैं कि तीन दिन बाद जब मुझे होश आया तो मैं अखनूर के हॉस्पिटल में था। पता चला कि मुझे गैंगरिन हो गया है। जिसके बाद मुझे वहां से उधमपुर शिफ्ट कर दिया गया। जहां डॉक्टरों ने बताया कि मेरा पैर गल चुका है और अब इसको काटने के अलावा कोई और ऑप्शन नहीं है।
मैं कुछ देर चुप रहा, फिर डॉक्टरों से कहा- प्लीज गो अहेड, इसमें कुछ भी नहीं रखा है। यह यकीन करना मुश्किल था कि मेरा एक पैर अब नहीं रहेगा, लेकिन मैंने इसे एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया और खुद से वादा किया कि जीवन में क्वालिटी से कभी समझौता नहीं करूंगा।
वोकहते हैं कि यह मेरे लिए पुनर्जन्म ही था, वरना मैं तो मर चुका था, वो डॉक्टर नहीं आते तो मेरा अंतिम संस्कार कर दिया जाता। उन्हें बहुत दिनों तक यह भी पता नहीं चला कि उनकी जान बचाने वाला डॉक्टर कौन है?कहां है?20 साल बाद डीपी उस डॉक्टर से मिल पाए। डॉक्टर का नाम कर्नल राजिंदर सिंह है,जो अब रिटायर होने के बाद कैलिफोर्निया में रहते हैं।
मेजर सिंह करीब एक साल तक अस्पताल में रहे। इस दौरान एक के बाद एक कई सर्जरी हुईं। दाहिना पैर पहले ही काट दिया गया गया था। उनकेइंटेस्टाइन के कुछ हिस्से भी हटा दिए थे। उनकी सुनने की ताकत भी कमजोर पड़ गई थी। शरीर में 50 स्प्लिन्टर्स लगे थे।
15 जुलाई को डेथ एनीवर्सरी और पुनर्जन्म दोनों मनाते हैं
डीपी सिंह की बर्थडे लिस्ट में एक नहीं, दो नहीं बल्कि तीन तारीखें शामिल हैं। एक 13 जनवरी जिस दिन उनका जन्म हुआ था। दूसरी तारीख 13 सितबंर जो दस्तावेजों में दर्ज हैऔर तीसरी तारीख 15 जुलाई जो उनके लिए बेहद खास है और उसे सेलिब्रेट करना वोकभी नहीं भूलते। आखिर उस दिन वो मौत से लौट आए थे।
इंडिया के फर्स्ट ब्लेड रनर
मजबूत इरादों वाले डीपी सिंह ने 2009 में पहली बार मैराथन में भाग लिया। 2011 में डीपी सिंह देश के पहले ब्लेड रनर बने थे। अब तक वो26 से ज्यादा हाफ मैराथन में भाग ले चुके हैं। हाल ही में उन्होंने अपने 42वें जन्मदिन को यादगार बनाने के लिए 42 किलोमीटर की फुल मैराथन में भाग लिया। इनमें तीन बार तो उन्होंने हाई एल्टीट्यूड पर हुई दौड़ में भाग लिया है। वोसांगला, लेह और करगिल में हुई मैराथन में दौड़ चुके हैं।
चार बार लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में दर्ज करा चुके हैं अपना नाम
डीपी सिंह चार बार लिम्का बुक ऑफ ऑल रिकॉर्ड्स में अपना नाम दर्ज करा चुके हैं। 2016 में लिम्का बुक ऑफ ऑल रिकॉर्ड्स ने उन्हें पीपल ऑफ द ईयर डिक्लेयर किया था। इसके साथ ही साल 2018 में भारत सरकार ने डीपी सिंह को नेशनल रोल मॉडल के अवॉर्ड से सम्मानित किया था।
इंडियन आर्मी ब्रांड एंबेसडर ईयर ऑफ द डिसेबल्ड 2018 भी रह चुके हैं। उन्हें केविनकेयर एबिलिटी अवॉर्ड भी मिल चुका है। 100% डिसेबल होने के बाद भी डीपी सिंह ने अपने ऑर्गेन्स और बोन मैरो डोनेट करने का प्रण लिया है। उन्होंने नेशनल अवॉर्ड और केविनकेयर अवॉर्ड के दो लाख रुपए इंडियन आर्मी के वेलफेयर फंड में डोनेट कर दिए।
सोलो स्काई डाइविंग करने वाले एशिया के पहले दिव्यांग
मेजर डीपी सिंह ने पिछले साल नासिक में पहली बार सफल स्काई डाइविंग की। ऐसा करने वाले वो एशिया के पहले दिव्यांग हैं। उन्होंने यह साबित कर दिया है कि दिव्यांगता उनके साहस और मजबूत इरादों को कमजोर नहीं कर सकती। डीपी सिंह इसका श्रेय सेना और उसकी ट्रेनिंग को देते हैं।
द चैलेंजिंग वन्स से दिव्यांगों के जीवन में भर रहे उड़ान
साल 2011 में डीपी सिंह ने एक एनजीओ द चैलेंजिंग वन्स की स्थापना की, ताकि उनकी तरह शारीरिक रूप से दिव्यांग लोगों मेंहिम्मत भरकर उन्हें जीवन जीने का जज्बा सिखा पाएं। अभी करीब 2000 लोग इससे जुड़े हैं। इनमें से 1000 से ज्यादा तो ऐसे हैं जिन्होंने नेशनल लेवल स्पोर्ट्स इवेंट अपने झंडे गाड़े हैं। जिसमें पैरा बैडमिंटन गोल्ड विनर मानसी जोशी भी शामिल हैं।
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