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Sunday, November 8, 2020

त्योहारों के मौसम में हमारे छोटे-छोटे कार्य किसी जरूरतमंद को खुशी दे सकते हैं

इस शनिवार तक मैं भोपाल में विश्वविद्यालय और स्कूल चलाने वाले सेज ग्रुप के कई अकादमिक सदस्यों के साथ तीन दिन के अनुभवात्मक प्रशिक्षण कार्यक्रम में व्यस्त था। चूंकि हम इस विषय पर 72 घंटों के ‘मैनथन’ पर थे कि ऐसे रास्ते पर कैसे चलें जो अकादमिकों को महज अध्यापक (जानकारी प्रदाता) से उपाध्याय (ज्ञान प्रदाता) का और फिर ऐसे गुरु तक का दर्जा दिलाए, जो जीवन जीने का ज्ञान दे सके।

प्रतिभागियों में कुछ भोपाल से ही थे, तो कुछ लोग दूसरे शहरों से। चर्चा में हम सभी इस बात से सहमत थे कि लक्ष्य की तरफ पहला कदम जीवन में खुश होना है और हमने इसपर बहस शुरू की कि काम के तनावपूर्ण माहौल के बीच, खासतौर पर कोविड की परिस्थिति के बाद, वह खुशी कैसे हासिल होगी।

तीसरे दिन मेरा ध्यान अचानक अप्लाइड साइंस की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ मीना मौर्य पर गया, जो उस कॉन्फ्रेंस में भोपाल से ही थीं। उनके चेहरे पर कुछ अतिरिक्त खुशी थी। उनके मन में एक अलग शांति थी और वे मेरे द्वारा कहा गया हर शब्द किसी स्पंज की तरह सोख ले रही थीं। जब मैंने पूछा तो पता चला कि वे अपने साथ कुछ बिस्किट के पैकेट लाई थीं जो उन्होंने उस सुबह बड़े कैंपस में निर्माण कार्य में लगे मजदूरों के बच्चों में बांटे थे।

वे ऐसा करने के लिए इसलिए प्रेरित हुईं क्योंकि दो दिन से हमारे लंच और स्नैक्स के समय के दौरान हम सभी ने देखा कि ये बच्चे दूर खड़े होकर हमें शानदार खाना खाते देख रहे थे। हम लोग, जो कैंपस में ही रह रहे थे, वे अपनी रोटी उन्हें दे सकते थे लेकिन डॉ मौर्या जैसे लोग, जिन्हें हर रात घर जाने मिलता था, वे बाहर से खाना ला सकते थे। और यह समझना रॉकेट साइंस नहीं है कि उन मासूम बच्चों की खुशनुमा मुस्कुराहटों ने कॉन्फ्रेंस हॉल में तीसरे दिन डॉ मौर्या के माथे से शिकन मिटा दीं।

मुझे खुद इसका अनुभव बाद में रविवार की सुबह हुआ, जब मैंने मेरी ट्रिप के लिए पैक किया गया नाश्ता ऐसे व्यक्ति के साथ साझा किया जो वाकई भूखा था पर भीख नहीं मांग रहा था। उसके चेहरे के संतोष ने मेरे अंदर एक ऊर्जा ला दी और मुझे महसूस हुआ कि मेरा दिन सार्थक हो गया।

नासिक की ओर अपने सफर के दौरान में महाराष्ट्र के एक कोने में एजुकेशनल हब के रूप में उभर रहे छोटे शहर सिरपुर में रुका। उस शहर में मैंने कुछ अजीब देखा। वहां कचरा गाड़ी वाले को कचरा देने के बाद कई गृहणियों के चेहरे पर संतोष का भाव था। मेरी जिज्ञासा यह थी कि कचरा फेंकने में खुश होने वाली क्या बात है?

फिर मुझे पता चला कि सिरपुर में कुछ कचरा गाड़ियों में अलग से एक बाल्टी लटकी होती है जिसमें रहवासी बची हुई रोटियां डालते हैं। इन्हें ‘गाय की रोटी’ कहा जाता है। ये रोटियां जानवरों को खिलाई जाती हैं, ताकि उन्हें कचरे में खाना न ढूंढना पड़े। और गृहणियों के चेहरे पर खुशी की वजह उस संतोष का नतीजा है कि मेहनत से हासिल किया गया उनका खाना बर्बाद नहीं होता और साथ ही यह उम्मीद है कि जल्द किसी जानवर को खाना मिलेगा।

फंडा यह है कि इस त्योहारों के मौसम में हमारे छोटे-छोटे कार्य किसी जरूरतमंद को खुशी दे सकते हैं। इस बार हम मिठाई के पैकेट और डिजिटल गिफ्ट कार्ड से परे जाकर कुछ ऐसा करें जो हमारे दिल को भी सुकून दे।



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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरू।


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