लॉकडाउन कितना सफल रहा? अगर पूर्ण लॉकडाउन नहीं होता तो स्थिति कितनी खराब होती? क्या होगा जब इसमें छूट मिलेगी? 138 करोड़ के देश में, जहां अधिकतर गरीब लोग हों और कोई भी छूट कैसे ले सकते हैं? क्या प्रधानमंत्री ने नहीं कहा था- ‘जान है जहान है’? जान तो है, हम सब जीवित हैं। किसी भी प्रमुख देश की तुलना में कोरोना वायरस से सबसे कम मौत भारत में हो रही हैं। इसलिए अपने भगवान को शुक्रिया अदा कीजिए, प्रधानमंत्री के प्रति आभार व्यक्त कीजिए और वापस घर में बंद हो जाइए। क्या सचमुच? लाॅकडाउन के 40 दिन से अधिक पूरे होने के बाद भी हमें ऐसा ही करना चाहिए?
हम सभी लोग जिंदा रहने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन हमारी आजीविका तो ठप है। कई लोगाें की अाजीविका वापस भी नहीं आने वाली। करोड़ों लोग जो 1991 के बाद गरीबी रेखा से ऊपर आने में कामयाब रहे थे वे किसी भी वक्त दोबारा गरीबी रेखा के नीचे फिसल सकते हैं। हम जिंदा हैं, लेकिन अमिताभ बच्चन का वह संवाद याद कीजिए जो उन्होंने 1979 की फिल्म मिस्टर नटवरलाल में बोला था- ‘ये जीना भी कोई जीना है लल्लू?’
जरा पांच दशक पीछे चलते हैं। गोपालदास नीरज (1925-2018) को गहरी उदासी का कवि माना जाता है। हालांकि, उन्होंने कई रूमानी गीत भी लिखे हैं। इनमें लिखे जो खत तुझे (कन्यादान) और फूलों के रंग से (प्रेम पुजारी, 1970) शामिल हैं। परंतु जिस गीत ने उनकी कविता को अमर बनाया वह एक दुखभरा गीत है- ‘कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे’। 1966 में आई ‘नई उम्र की नई फसल’ फिल्म का यह गीत मोहम्मद रफी ने गाया था। इस पर खूब पैरोडी भी बनीं। ऐसी ही एक पैरोडी थी- मर गया मरीज, हम बुखार देखते रहे।
मैं बुखार और कोरोना वायरस का संबंध जानता हूं। मुझ पर यह आरोप भी लग सकता है कि मैं एक त्रासदी का मखौल बना रहा हूं, परंतु लगातार बढ़ाया जा रहा लॉकडाउन भी तो यही कर रहा है। अगर वायरस हमें नहीं मारेगा तो हम बेरोजगारी, भूख, अकेलेपन, अवसाद और स्वाभिमान के नष्ट होने से मर जाएंगे। यह समय दोबारा से काम शुरू करने का है। लेकिन, सरकार ने लॉकडाउन दो सप्ताह के लिए बढ़ा दिया है और जिस तरह से चुनिंदा जगहों को खोला जा रहा है, उससे साफ है कि हालात जल्दी नहीं बदलेंगे।
संभव है कि भारत के पास अमेरिका की तरह नकदी का भंडार न हो, न ही नई मुद्रा छापने की गुंजाइश हो, लेकिन हमारे पास थलसेना, नौसेना और वायुसेना तो हैं न जो हमारे जज्बे में जान फूंकेंगी। फ्लाईपास्ट, बैंड, कोराना वायरस पीड़ितों का इलाज करने वाले अस्पतालों पर फूल बरसाते हेलिकॉप्टर जैसे विचार आकर्षक हैं। परंतु जब लाखों गरीब मजदूर आज भी पैदल अपने घरों को लौट रहे हैं तो क्या यह वैसा ही नहीं है, जैसा फ्रांस की महारानी ने कभी कहा था- ‘उनके पास रोटी नहीं है, तो उनसे केक खाने को कहो।’ उन्हें यह आश्वस्त करने की जरूरत है कि उनकी नौकरी नहीं जा रही है और काम जल्द शुरू होने वाला है।
वियतनाम युद्ध के दौरान अमेरिकी सेना रोज जो ब्रीफिंग करती थी, उसे प्रेस ने पांच बजे की मूर्खता नाम दिया था। ऐसा तब होता है, जब सरकारें नागरिकों को बच्चा समझने लगती हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय की कोविड-19 के हालात को लेकर होने वाली ब्रीफिंग पर नजर डालिए, वहां केवल संक्रमण और मृत्यु के आंकड़े और यह बताया जाता है कि शेष दुनिया की तुलना में हम कितना अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं। सूचनाओं की इतनी कमी थी कि एक दिन मैं भी पीआईबी की इस ब्रीफिंग में शामिल हुआ। मैंने एक सवाल पूछा कि ‘कोविड-19 के मौजूदा संक्रमितों में से कितने वेंटिलेटर पर हैं?’ वहां मौजूद वैज्ञानिक/चिकित्सक ने इसका उत्तर नहीं दिया, बल्कि एक अफसरशाह ने दिया। वही पुराने अफसरशाही वाले अंदाज में, ‘मैं आपसे झूठ नहीं बोलूंगा, लेकिन आप अगर मेरा नाम पूछेंगे तो मैं जन्मतिथि बताऊंगा।’
देश में कोविड-19 का पहला मामला सामने आने के तीन महीने बाद हमें रोज के आंकड़ों के अलावा भी जानकारी चाहिए। हमें आगे की राह पर नजर डालनी होगी कि हालात सामान्य कैसे होंगे। हम तो यही देखकर खुश हैं कि लोग लॉकडाउन के बिना सोचे-समझे लिए गए तुगलकी फैसले का कितने आज्ञाकारी ढंग से पालन कर रहे हैं। इसकी वजह यह है कि हम डरे हुए हैं। 138 करोड़ लोगों का यह देश जिसे दुनियाभर में उनकी आकांक्षाओं और उद्यमिता के लिए जाना जाता है, उसे यह भी पता नहीं है कि दो हफ्ते के बाद क्या होने जा रहा है।
हम जानते हैं कि अत्यंत बीमार मरीज को चिकित्सकीय कोमा में रखा जाता है, ताकि उसका शरीर स्वस्थ हो सके। परंतु आपको यह पता होना चाहिए कि इसे कब खत्म करना है, ताकि बीमार खुद से जिंदा रहे। यदि उसे कोमा में रहने देंगे और हर बार उसके सभी प्रमुख अंगों के ठीक से काम करने पर आप खुश हांेगे तो डर यह है कि मरीज मर जाए और आप बुखार नापते रह जाएं। (यह लेखक के अपने विचार हैं।)
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