प्यारे दोस्त, नमस्कार, मैं यहां पर राजी-खुशी हूं और तुम्हारी कुशलता की हार्दिक कामना करता हूं। आशा है तुम्हें मेरी पिछली चिट्ठी मिल गई होगी, जो मैंने शब्दों में नहीं सपनों में लिखी थी। हालांकि, तुमने उस चिट्ठी का जवाब नहीं दिया, लेकिन फिर भी मैंने सोचा कि जवाब की राह देखे बिना मैं तुम्हें अपने गांव का समाचार दे दूं। मैं जानता हूं ऊपर अकेले बैठे-बैठे और स्वर्ग-नरक का हिसाब करते-करते तुम भी उकता जाते होंगे, अब ऐसे में मेरी चिट्ठियां ही मनोरंजन का साधन हैं तुम्हारे लिए। एक बार तुमने लिखा था कि यहां गांव में हर आदमी के साथ तुम्हारा अलग संबंध है। कोई तुम्हें दोस्त मानता है, कोई पिता, कोई माता, कोई बिना किसी रूप के मानता है और कोई ऐसा भी है, जो मानता ही नहीं। तुम्हारा किसी के साथ कोई भी संबंध हो पर मेरे लिए तुम बचपन के दोस्त ही हो। हम में न कोई औपचारिकता है और न ही दिखावा, इसलिए हम दोनों एक-दूसरे से खुलके बात कर सकते हैं। तो बात ऐसी है दोस्त कि पिछले दिनों से अपना गांव सुनसान सा हुआ पड़ा है, किसी-किसी सड़क पर कुछ आना-जाना होगा पर मुझे पक्के तौर पर इसका कोई समाचार नहीं, तुम तो जानते हो कि सुनी-सुनाई बात पर मैं अधिक विश्वास नहीं करता। तुम सोचते होंगे कि अचानक चहल-पहल वाला गांव सुनसान कैसे हो गया? वो इसलिए कि पहाड़ वाले जमींदार और दरिया पार वाले जमींदार की आपस में नहीं बन रही तो उनकी खींच-तान में अपन पिसत हैं भईया।
वैसे तुम्हें तो यह बातें सबसे पहले पता होनी चाहिए, तुम तो रोज़ शाम को पाप-पुण्य विभाग के आंकड़े देखते होंगे। अच्छा एक बात सच-सच बताओ, तुम वहां जो फैसले लेते हो वो क्या सचमुच गांव वालों के पाप-पुण्य के हिसाब से लेते हो? कई बार मुझे संदेह होता है कि हमार गांव की तरह उधर भी कोनो घपला है। जो दिनदहाड़े लोगों का खून चूस रहे हैं, उनकी तुम जेबें भर रहे हो और जो दिहाड़ी लगाकर पेटभर रहा है उसकी रोज आधी रोटी कम कर रहे हो। अब खून चूसने को तो तुम अपने बही-खाते में पाप ही लिखते होंगे न? अच्छा दिहाड़ी से याद आया कि सरजू, बिन्नी, मुल्ला, किसनू, मंगला जैसे अपने गांव के कई दिहाड़ीदार अभी तक घर नहीं पहुंचे। वहां भी नहीं जिस शहर में दिहाड़ी लगाते थे। तुम्हें ऊपर से अगर किसी सड़क पर चलते हुए दिखें तो तुरंत सूचना देना। बिन्नी की मां बहुत बीमार है, किसनू की लुगाई परेशान, मुल्ला का तो चलो कोई रोने वाला ही नहीं। तुमने एक चिट्ठी में बताया था कि यहां सब के पास पैसा, बुद्धि, शोहरत और बाकी अकड़म-बकड़म तुम्हारे यहां से ही आता है, तो यार थोड़ा समझ से तो भेजा करो। गांव में सबको लगता है कि तोहार कूरियर वाला आठ-दस लोगों से अधिक किसी का पता-ठिकाना नहीं जानता। मेरी मानो तो उसे नौकरी से निकाल दो और कोई नया ईमानदार कूरियर वाला रख लो।
अभी वाला तो तुम्हारा नाम खराब कर रहा है। आस की पूंछ भी कब तक पकड़े रहे कोई। यह तुम्हारा स्वर्ग-नरक का धन्धा भले कुछ दिन और खींच ले तुम्हारी सरकार, मगर आस-विश्वास का पपलू तो अब फिट होने से रहा। अब इधर वालों को तुम गांव-गूंव के मत समझो, सब ससुरे एक नंबर के चालू हैं। ईब यो चालूपंती का सबूत ही है कि गांव को सुनसान देखकर बिन्नी, मुल्ला, किसनू के लिए जिसे देखो चंदा जमा कर रहा है। और तो और कुत्ते-बिल्ली के नाम पर थूक लगा-लगाकर हरी पत्तियां गिन रहे हैं। बताओ भई इसके लिए चंदे की क्या ज़रूरत दो-चार कुत्ते-बिल्लियों को तो खिला ही सकते हो, है कि नहीं? कोई पूछे, कि इस दौर में किसी की अनावश्यक जरूरतें तो आप पूरी नहीं ही करोगे? भाई मेरे सारे का सारा गांव लम्पट हो गया अपना। हर कोई अपनी छपरी पे टीन लगा रहा है। किसी को किसी से तनिक मोह नहीं। अच्छा एक बात और, तुम्हारे नाम पर यहां बेबात बवाल मचाते रहते हैं कुछ गांव वाले। बेबात लड़ाते रहते हैं-उनके लिए भी कोई संदेसा भेज देना, भले मेरी चिट्ठी में ही भेज देना।
अब तुम कहोगे यह महामारी-तालाबंदी मेरा ही संदेशा है, मेरे यार ऐसा कहकर हम पर जुल्म तो मतकर। जब तक तू एक-एक को पकड़कर अच्छी तरह से सबक नहीं सिखाता तब तक कोई नहीं समझने का, ये साफ-साफ सुन ले। चल अब लिखना बंद करता हूं। भूल-चूक, लेनी-देनी, कहा-सुना माफ़ कर देना। बाकी तुम गांव की चिंता मत करना हम जैसे भी हालात हों गुजारा कर लेते हैं। यही हमारी खूबी भी है और यही कमी भी है। पवन गुरु, पानी पिता और धरती मां की ओर से तुम्हें प्यार।
तुम्हारा दोस्त।
(यह लेखक के अपने विचार हैं।)
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