इस साल फरवरी में तीन साल बाद आया एक ज्यादा दिन फ़हमीदा के जीवन का सबसे बड़ा दिन होने वाला था। 29 फरवरी को उनका निकाह होना तय हुआ था। अपने जीवनसाथी के साथ पहली ईद मनाने को लेकर फ़हमीदा ने कई सपने बुने थे। लेकिन, ये सपने सच होने की जगह दिल्ली में हुए दंगों में जलकर राख हो गए। निकाह से ठीक चार दिन पहले दंगाइयों ने फ़हमीदा का पूरा घर फूंक डाला। रमज़ान का ये महीना जो फ़हमीदा के लिए बेहद ख़ास होने वाला था, उनके जीवन के सबसे काले दिनों में बदल गया।
काली पड़ी दीवारें, जल चुके खिड़की-दरवाज़े और लगभग टूटने को तैयार छत के नीचे फ़हमीदा किसी तरह अपने परिवार के साथ दिन गुज़ार रही हैं। उनके पिता मोहम्मद असद कहते हैं, ‘कई साल मेहनत-मज़दूरी करके बेटी की शादी के लिए पैसे जुटाए थे। सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थी और बेटी के हाथों में उस दिन मेहंदी लग रही थी जब दंगाइयों ने हमारा घर जला दिया। बस किसी तरह हम लोग अपनी जान बचा सके। शादी के लिए जो कुछ भी जमा किया था वो या तो लूट लिया गया या जला दिया गया।’
उत्तर पूर्वी दिल्ली के खजूरी खास इलाके में बीती फरवरी जब दंगे भड़के तो मोहम्मद असद भी इलाके के बाकी लोगों की तरह अपना सब कुछ पीछे छोड़ इस इलाके से पलायन कर गए थे। दंगों के बाद वे कभी किसी मस्जिद में रहे तो कभी किसी मददगार की पनाह में। वो बताते हैं, ‘दंगों में मौत को इतना करीब से देखा था कि वापस लौटने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे।
लेकिन, फिर कोरोना के चलते लॉकडाउन हुआ तो राहत शिविर भी खाली करवाए जाने लगे और सार्वजनिक जगहें भी। जिनकी माली हालत थोड़ा ठीक थी, उन्होंने तो किराए पर घर ले लिए, लेकिन हमारे बस में ये नहीं था। काम-धंधा ही नहीं है तो किराया भी कहां से जुटाते। सो वापस यहीं लौटने के अलावा कोई रास्ता नहीं था।’
मोहम्मद असद की ही तरह दर्जनों दंगा पीड़ित परिवार इन दिनों जल चुके जर्जर मकानों में रहने को मजबूर हो गए हैं। इन मकानों की स्थिति ऐसी है कि अंदर घुसते हुए डर बना रहता है कि जाने कब मकान की छत गिर पड़े। दीवारों से लेकर छत तक जगह-जगह दरारें पड़ गई हैं, कई मकानों की छतें झूल रही हैं, जहां-तहां आग की कालिख फैली हुई है और जला हुआ सामान अब भी घरों में ही पड़ा है।
लॉकडाउन के चलते इन घरों की मरम्मत भी फिलहाल नामुमकिन हो गई है और ऐसे में ये तमाम लोग इन्हीं जर्जर इमारतों में कैद होकर रह गए हैं।
ऐसे ही एक घर में रह रहे 52 साल के सदरे आलम कहते हैं, ‘मेरा बड़ा बेटा इलेक्ट्रिशियन का काम करता है। उसने ही घर में किसी तरह दो बल्ब जलाने का इंतज़ाम कर दिया है। इस कालिख और जले हुए सामान के बीच ही किसी तरह दिन गुजार रहे हैं। मुआवजे के नाम पर अभी तक हमें एक रुपया भी नहीं मिला है। कुछ मुआवज़ा मिलेगा और लॉकडाउन ख़त्म होगा तो घर की हालत सुधारने की सोचेंगे।’
वैसे सदरे आलम जैसे कम ही लोग हैं जिनके घर दंगों में जलने के बावजूद भी अब तक कोई मुआवज़ा नहीं मिला है। ज़्यादातर दंगा पीड़ितों को घर जलने के एवज में मुआवजा मिलने की शुरुआत हो चुकी है। यह मुआवजा किसी को अब तक डेढ़-दो लाख ही मिल सका है तो किसी को सात-आठ लाख तक भी मिला है। लेकिन इसके बाद इन पीड़ितों के सामने कई तरह की समस्याएं खड़ी हैं।
मोहम्मद शाहिद बताते हैं, ‘दंगा प्रभावित इलाक़ों में रहने वाले अधिकतर लोग दिहाड़ी वाला काम ही किया करते हैं। कोई इलेक्ट्रिशियन है, कोई ऑटो चलाता है, कोई पल्लेदारी करता है तो कोई चौकीदारी करता है। इन दिनों लॉकडाउन के चलते सारे काम बंद हैं। हमारे लिए तो लॉकडाउन से भी महीने भर पहले से ही काम बंद हो गए थे जब दंगों में सब कुछ जल गया। मुझे ढाई लाख रुपए मुआवजा मिला है। लेकिन इस पैसे से घर कैसे बनवा पाऊंगा। महीनों से काम-धंधा बंद है तो इसी पैसे से खर्च चल रहा है और इस दौरान हुई उधारी चुका रहा हूं।’
रमज़ान का महीना इबादत और मदद का होता है। मोहम्मद नफ़ीस कहते हैं, ‘इन दिनों हर साल हम गरीबों की मदद किया करते थे लेकिन इस साल खुद ही मदद के लिए भटक रहे हैं। हालात ने मंगता बनाकर रख दिया है। रमज़ान का महीना है तो कई लोग राशन बांटने आ रहे हैं। उसी से परिवार का पेट भरते हैं और कालिख भरी इन दीवारों के बीच ही सो जाते हैं। रमज़ान का महीना इतना काला कभी नहीं था। ख़ुदा करे कभी आगे भी कभी न हो।’
दंगा प्रभावित इन इलाक़ों में सरकारी मदद भले ही अब तक सीमित पहुंची हो लेकिन रमज़ान में दान-धर्म का काम करने वाले कई लोग यहां आकर पीड़ितों की मदद कर रहे हैं। यहां रहने वालीं रशीदा बताती हैं, ‘कई लोग ऐसे भी मदद कर जाते हैं कि राशन के पैकेट के अंदर हजार-हजार रुपए रखे मिलते हैं। एक विधवा औरत को तो किसी ने नई स्कूटी भी खरीद कर दान की क्योंकि उसकी स्कूटी दंगों में जल गई थी। नई स्कूटी देने वाले ने अपना नाम भी नहीं बताया बस चुपचाप स्कूटी खरीद कर दे गया। जबकि कई लोग यहां ऐसे आते हैं कि दो किलो राशन देकर बीस फोटो उतारते हैं। ऐसे में राशन लेते हुए शर्म भी आती है लेकिन जब हालात ने ही ऐसे दिन दिखा दिए तो क्या कर सकते हैं।’
पतली-तंग गलियों में बने इन संकरे और ऊंचे घरों में गर्मियां आफत बनकर टूटती हैं। दंगों की आग की कालिख ने इस बार गर्मी को और भी क्रूर बना दिया है। चूंकि घरों में लगी बिजली की सभी तारें जल चुकी हैं लिहाजा इन लोगों के पास पंखों तक की व्यवस्था भी नहीं है। लेकिन, दंगों की आग में झुलस चुके इन लोगों की परेशानी इतनी बड़ी हैं कि गर्मी से लड़ना बहुत छोटी बात जान पड़ती है। 65 वर्षीय मोहम्मद साफ़िर कहते हैं, ‘गर्मी तो हम किसी भी तरह झेल लेंगे। हमें चिंता तो इस बात की है कि कहीं पूरा मकान ही न गिर पड़े। दंगों के दौरान मेरे घर में सिलेंडर फटा था जिसके कारण घर कभी भी गिरने की हालात में हो गया है। अब जो बचा है, वह पूरा तोड़कर दोबारा बनाना होगा। चिंता ये है कि कहीं लॉकडाउन के ख़त्म होने से पहले ही ये टूट न जाए। रात को सोते हुए यही डर बना रहता है।’
कोरोना संक्रमण के चलते हुए लॉकडाउन में देश के लाखों प्रवासी मज़दूर अलग-अलग शहरों में फंसे हुए हैं। इनमें कई ऐसे भी हैं जिन्हें बेहद मुश्किल हालात में ये दिन गुजारने पड़ रहे हैं और वे बस अपने घर लौटने का इंतज़ार कर रहे हैं। लेकिन खजूरी ख़ास के इन दंगा प्रभावितों से ज़्यादा अमानवीय स्थिति में शायद ही कोई और फंसा हुआ हो।
जले हुए जर्जर मकानों में दंगों के भयावह निशानों के बीच फंसे इन लोगों के पास घर लौट जाने का भी विकल्प नहीं है क्योंकि ये अपने ही घरों में फंस गए हैं। वही घर जो इन कामगार लोगों ने दशकों की मेहनत के बाद खड़ा किया था और जिसे हर साल रमज़ान के महीने ये चमका कर नए जैसा करते आए थे। इस साल बस घर की दीवारों से कालिख धो-धोकर किसी तरह उम्मीद बांधे ये लोग इंतज़ार में हैं कि लॉकडाउन खुलने और घर की मरम्मत होने से पहले ही कहीं पूरी इमारत ढह न जाए।
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