कोरोना वायरस ने मानव सभ्यता के सामने कुछ मूूलभूत प्रश्न खड़े कर दिए हैं। ऐसा नहीं है कि ये प्रश्न हमने स्वयं से पहले कभी नहीं पूछे थे। पर शायद पहले हम इस प्रकार के प्रश्नों को इतनी गंभीरता से नहीं लेते थे। शायद हममें से कई थे जो बढ़ते उपभोक्तावाद से चिंतित होते थे, मात्र पैसे कमाने को ही जीवन का ध्येय समझ लेने की सोच से असहमत होते थे। पर कहीं उनके यह प्रश्न जीवन की आपाधापी में खो जाते थे। अब परिवार और रिश्तों को ही ले लें। कहीं अवचेतन में हम सभी को लगता था कि शायद हम रिश्तों को इतना समय नहीं दे रहे हैं। उन्हें सींच नहीं रहे हैं। पर, बार-बार जीवीकोपार्जन के क्रूर तथ्य के नीचे वे कोमल भावनाएं मौन हो जाती थीं। लॉकडाउन के दौरान मेरे कई मित्रों ने मुझे यह बताया कि वर्षों बाद उन्होंने इस तरह अपने परिवारों के साथ समय बिताया है और इस दौरान न जाने कितने भूले-बिसरे प्रसंग और यादें ताजा हो गई हैं। जीवन की न जाने कितनी ऐसी गलियों से वे पुन: गुजरे हैं, जिन्हें वे प्राय: भूल चुके थे। बशीर बद्र साहब का शेर है- ‘इस वक्त जो घर जाऊंगा, सब चौंक पड़ेंगे, इक उम्र हुई, दिन में कभी घर नहीं देखा’।
दरअसल पिछली कई पीढ़ियों की जीवनचर्या बिलकुल अलग रही है। उनकी प्राथमिकताएं अलग रही हैं। हमारी संस्कृति मूल रूप से व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को परिवार और समाज से कभी ऊपर नहीं रखती थी। पर धीरे-धीरे हमने व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को जरूरत से ज्यादा महत्व देना शुरू कर दिया। ‘मैं’ अधिक महत्वपूर्ण हो गया और ‘रिश्ते’ कहीं पीछे रह गए। रिश्ते हमें अपने सपनों की दौड़ में बोझ लगने लगे। तब भी हम में से कुछ थे जिन्हें जीवन की प्राथमिकताओं में भावनाओं का पिछड़ जाना कचोटता रहा। पर हम भी एक पेंडुलम की तरह महत्वाकांक्षाओं और रिश्तों के बीच झूलते से दिखाई दिए।
कोरोना संकट ने एकाएक हमारे सामने फिर से वही प्रश्न खड़े किए तो इस बार इन प्रश्नों में धार थी। एक चेतावनी थी। आने वाले कल का संकेत था। हमने जब एक पल ठहर कर स्वयं के जीवन पर दृष्टि डाली तो हम सबको कहीं अंदर से यह अहसास हुआ कि हम शायद जीवन में जरूरी और गैर जरूरी का अंतर भूल चुके हैं। पर यहां मैं निराशावादी नहीं हो रहा हूं। मानव की यह खूबी है कि उसे स्वयं को बदलना भी आता है। और मुझे विश्वास है कि कोरोना संकट के बाद हमारे रिश्ते ज्यादा बलवान होंगे। उनमें अधिक सुवास होगी। आज जहां हम सोशल डिस्टेंसिंग और दूरियों की बात कर रहे हैं, वहीं हम रिश्तों में नजदीकियों की बात भी कर रहे हैं। विरोधाभास है, लेकिन सत्य भी है। संकट हमें तोड़ने के लिए आते हैं पर हमारा जुुड़ना हमारी शक्ति बन जाता है।
एक दूसरा प्रश्न मानव और प्रकृति के संबंध के विषय में है। यहां भी मुझे लगता है कि अगर हम भारतीय संस्कृति पर दृष्टि डालें तो एक अलग दृश्य दिखाई देगा। एक दृश्य जहां प्रकृति मानव को दुलार रही है। सत्य यह है कि हमारी संस्कृति ने कभी हमें प्रकृति से प्रतिद्वंद्विता करना नहीं सिखाया। हम तो प्रकृति के सामने नतमस्तक होते हैं। उसके आदेशों को स्वीकार करते हैं। उस पर विजय पाना हमारा उद्देश्य कभी नहीं रहा। अब कहीं हम यह भी भूल गए और परिणाम स्वरूप हमें मिली कुपित प्रकृति, जिसका प्रकोप हमें झेलना ही होगा। प्रकृति के संकेतों को हमें समझना और सीखना होगा। और यहां भी मुझे लगता है हम इस संकट के दौरान जीते हैं। चाहे थोड़े समय के लिए ही सही, हमने प्रकृति के साथ अपने रिश्ते पर एक दृष्टि तो डाली है। हम प्रकृति का इसी तरह लगातार शोषण नहीं कर सकते। हमारी नदियों ने, हमारे पहाड़ों ने, हमारी वायु ने कब से यह कहना शुरू कर दिया था कि ऐसे नहीं चल सकता। मानव को अपने आचरण को सुधारना ही होगा। और भी कई प्रश्न हैं जो आज हमारे सम्मुख आ खड़े हुए हैं। और मैं आशान्वित हूं, क्योंकि हम आज सुनने को तैयार हैं। हम आज बात करने को तैयार हैं। हम आज अपनी गलतियों से सीखने को तैैयार हैं। यदि मानव सभ्यता अपना अहं छोड़कर इन प्रश्नों का सही उत्तर खोजने का प्रयास करेगी तो एक नए युग का उदय होगा। मैं आशान्वित हूं।
(यह लेखक के अपने विचार हैं।)
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