कोरोना वायरस जैसे जिंदगी बदलने वाले संकट को देखकर अब इन अटकलों का उठना स्वाभाविक है कि यह महामारी किस तरह से हर चीज को बदल देगी? कोरोना वायरस ने ऐसे समय पर हमला किया है, जब दुनिया पहले ही भीतर की ओर मुड़ रही है यानी स्वदेशी का रुख कर रही है। लोगों के, धन के और सामान के मुक्त प्रवाह के रास्ते में देश बाधाएं खड़ी कर रहे हैं। अब ये सभी रुझान तेज हो रहे हैं, खासकर जनवादी नेतृत्व वाले देशों में, जो इस महामारी का इस्तेमाल बाधाओं को खड़ी करने में कर रहे हैं। कोरोना वायरस के बाद का युग बहुत हद तक 2008 के संकट के बाद जैसा ही होगा, लेकिन इसमें अंदरूनी प्रवृत्तियां बहुत अधिक होंगी। जनवादी नेता विदेशियों पर प्रहार करने के प्रति अधिक उत्साही होते हैं, ये देश वैश्विक व्यापार, वैश्विक बैंक व अंतरराष्ट्रीय प्रवासन के लिए खुद को खोलने के प्रति भी कम इच्छुक होते हैं। इनकी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था स्थानीय उद्योगों पर अधिक निर्भर होती है। हालांकि, आज ऑनलाइन इकोनाॅमी की दुनिया में लोग हर जगह राेजगार, शिक्षा व मनोरंजन के लिए कोरोना वायरस से मुक्त घर का आश्रय ले रहे हैं।
2008 से पहले वैश्विक व्यापार वैश्विक अर्थव्यवस्था की तुलना में दोगुनी गति से बढ़ रहा था, लेकिन हाल के वर्षों में यह इस गति को नहीं बनाए रख सका और अब तो कुछ भी कहना मुश्किल है। 2020 में वैश्विक व्यापार में 15 फीसदी की कमी और इकोनॉमिक आउटपुट तीन गुना कम रहने का अनुमान है। इसके अलावा व्यापार की राजनीति वायरस के बाद उबरने की गति को भी धीमा कर देगी। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की भूमंडलीकरण के खिलाफ बयानबाजी जारी है। उनका कहना है कि ‘मैं सुनिश्चित नहीं हूं कि कौन ज्यादा खराब है, विश्व व्यापार संगठन या विश्व स्वास्थ्य संगठन’। वह दोनों पर ही चीन का समर्थक होने का आरोप लगाते रहे हैं। अब अंतर यह है कि ब्रिटेन, फ्रांस, ब्राजील, जापान और भारत समेत अनेक देशों में चीन विरोधी बयानबाजी बढ़ रही है। खाद्य राष्ट्रवाद बढ़ रहा है। 60 से अधिक देशों ने मास्क, दस्ताने और अन्य रक्षात्मक उपकरणों के निर्यात पर रोक लगा दी है। इस वायरस को रोकने के लिए हर तरह के राजनेताओं ने अकूत शक्तियों को हासिल कर लिया है। सत्तावादी प्रवृत्ति के नेता तो इस महामारी से अधिक अधिकारों के साथ बाहर निकलेंगे।
उभरते बाजारों में भाग्य चमकाने के लिए आए निवेशक वैश्विक आर्थिक संकट के बाद से ही लौट रहे थे, लेकिन इस साल के पहले तीन महीनों में वापसी की यह गति तेज हो गई है और इस अवधि में उभरते स्टॉक मार्केटों से 6750 अरब रुपए से अधिक निकाले जा चुके हैं। 1980 के बाद गिरती ब्याज दरों और वित्तीय विनियमन की वजह से 2008 का संकट शुरू होने से पहले तक कर्ज देने में भारी तेजी आई। जिसने दुनिया पर कर्ज के बोझ को वैश्विक आर्थिक आउटपुट का तीन गुना कर दिया। उसी साल जमा में भारी कमी आने से बैंक बुरी तरह प्रभावित हुए और लोगों पर नए कर्ज लेने का डर हावी हो गया।
अब, आर्थिक लॉकडाउन में नगदी का प्रवाह रुकने से अमेरिका, यूरोप और एशिया की कर्ज में डूबी कंपनियों के दिवालिया होने का खतरा पैदा हो गया है। जो सप्लाई चेन अब तक दुनिया में फैली थी और बहुत हद तक चीन की फैक्टरियों पर निर्भर थी, अनेक देश उस पर पुनर्विचार कर रहे हैं। हाल ही में दुनिया के 12 उद्योगों पर किए गए एक सर्वेक्षण में पता चला है कि इनमें से ऑटो, सेमीकंडक्टर और मेडिकल उपकरण जैसे दस क्षेत्रों की कंपनियों का कहना है कि वे सप्लाई चेन के अंतिम सिरे पर जाने की योजना बना रही हैं और इसका सीधा अर्थ है कि वे चीन से बाहर जा रही हैं।
इस महामारी ने इंटरनेट सहित सभी चीजांे को नियंत्रित करने की इच्छा रखने वाले जनवादियों को प्रोत्साहित किया है। चीन ने एक राष्ट्रीय इंटरनेट बनाकर रास्ता दिखाया है और कई लोग उसका अनुसरण कर रहे हैं। अब लॉकडाउन ने लोगांे को घर पर बैठकर ही काम और खरीदारी करने, पढ़ने व खेलने के लिए मजबूर कर दिया है, जिससे विकसित देशाें में इंटरनेट ट्रैफिक 50 से 70 फीसदी बढ़ गया है। ये आदतें महामारी के बाद भी रह सकती है। मार्च के शुरू से अब तक गूगल क्लासरूम का इस्तेमाल करने वालों की संख्या दोगुनी होकर दस करोड़ से अधिक हो गई है। यद्यपि, इस वर्चुअल अर्थव्यवस्था का विकास भी घर पर स्क्रीन के सामने बैठकर काम कर रहे अकेले कर्मचारी की ओर आंतरिक मोड़ लिए हुए है, लेकिन दक्षता की ओर उसका फोकस उत्पादकता को बढ़ा सकता है। 2008 के संकट के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे उबर पाई थी और अब भी लोगों का, धन का और सामान का धीमा प्रवाह है, जिसका मतलब कम प्रतिद्वंद्विता व कम निवेश है। जिन रुझानोंको आने में पांच या दस साल का समय लगना चाहिए था, इस महामारी से वे कुछ हफ्तों में ही आ गए हैं और सभी इस बात की ओर इशारा करते हैं कि वे भी भीतर की ओर ही जा रहे हैं।
(यह लेखक के अपने विचार हैं।)
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