कोरोना कालखंड में किशोर और युवा ऑनलाइन पढ़ाई कर रहे हैं। अपने मनोरंजन के लिए इंटरनेट पर वे फोर मोर शॉट्स, एवेंजर्स, स्टार वॉर, मनीहाउस और डेजिग्नेटेड सरवाइवर देख रहे हैं। हम जब किशोर वय के थे तब माडिया, जानकावस और भगवान दादा की फिल्में देखते थे। कभी-कभी टारजन फिल्में भी देखने को मिल जाती थीं। ‘किंगकांग’ की त्रासद प्रेम कहानी हमें देवदास-पारो की प्रेम कथा से अधिक प्रभावित करती थी। फिल्म ‘किंगकांग’ वनमानुष में घुसे प्रेमल हृदय की बात करते हुए मनुष्य में छिपे हुए जानवर की बात भी करती है। पारो-देवदास प्रेम कथा तो हिंसक स्वरूप ले लेती अगर उनका विवाह हो जाता। अनिश्चय से विचलित देवदास और तुनक मिजाज पारो का संवाद सारा मोहल्ला सुनता।
माडिया-जानकावस और एवेंजर्स तथा इसी श्रेणी की विज्ञान फंतासी फिल्मों में एक अंतर यह है कि माडिया फिल्मों की मासूमियत विज्ञान फंतासी में नजर नहीं आती। समानता यह है कि दोनों ही श्रेणी की फिल्मों में मनुष्य ज्ञान के नए क्षितिज खोजने का प्रयास कर रहा है। ‘मनीहाउस’ जैसी फिल्मों की श्रेणी में ‘ग्रैंडस्लेम’ आज भी पाठ्यक्रम की किताब का दर्जा रखती है। इस फिल्म का नैतिक संदेश इसे महाकाव्य का दर्जा देता है। फिल्म के अंतिम दृश्य में हीरों की दुकान का सेवानिवृत्त मैनेजर अपनी उम्रदराज पत्नी को बताया है कि वर्षों तक नौकरी करते हुए उसने हीरा डकैती की योजना बनाई। उसी के द्वारा नियोजित चोरी के कुछ समय पूर्व उसने असली हीरों की जगह नकली हीरे रख दिए और चोरों में लाभ-लोभ के कारण आपसी द्वंद्व हुआ और इस कुरुक्षेत्र में सारे योद्धा मारे गए। एक सड़क के किनारे बने रेस्त्रां में असली हीरों की पोटली एक मामूली चोर उठा ले जाता है। मैनेजर अपनी पत्नी सहित अपने सुदूर कस्बे में चला जाता है, क्योंकि वह जानता है कि उठाईगीरे पकड़े जाएंगे और हीरों की पहचान हो जाएगी। वे दोनों उठकर जाते हुए अपना बिल अदा कर देते हैं। खाया-पिया कुछ नहीं, गिलास तोड़ा बारह आना। विज्ञान फंतासी की दार्शनिकता से लबरेज फिल्म ‘मैट्रिक्स’ में यह भय अभिव्यक्त किया गया है कि मनुष्य कम्प्यूटर का दास हो जाएगा और कम्प्यूटर मनुष्य को अपनी बैटरीज की तरह इस्तेमाल करेंगे। बैटरीज विलक्षण शक्ति स्रोत है। राजकुमार हिरानी की फिल्म ‘पीके’ का अन्य ग्रह से आया व्यक्ति स्वदेश लौटते समय अपने साथ बैटरीज ले जाता है। वह अपने गोलों में बैठकर टेप रिकॉर्डर पर इस गोले की आवाज सुुनेगा। दरअसल विरह के समय अपने गोले के लॉकडाउन में वह पृथ्वी की अपनी प्रेमिका की आवाज टेप कर ले जा रहा है। प्रेम और संवेदना ही हजारों मील की दूरी पर बसे गोलों को एक धागे में बांधते हैं।
‘डेजिग्नेटेड सरवाइवर’ में किसी महामारी के तांडव के समय लगने लगे कि प्रलय के समान सृष्टि का अंत निकट है तो किसे बचाना ठीक होगा? क्या सबसे अधिक बलवान को बचाना चाहिए या धनवान को या बुद्धिमान को। कमजोर आम आदमी पर विचार नहीं किया जाएगा। यह सूक्ति कि कमजोर व्यक्ति सृष्टि का वारिस होगा, ठुकरा दी जाएगी। उस शायर पर लानत भेजी जाएगी, जिसने लिखा था कि हम खाकनशीनों की ठोकर में जमाना होगा। गुलजार की इस आशा को भी निरस्त कर दिया जाएगा कि जब सूरज की आग बुझने लगेगी तब पृथ्वी से उड़ा एक कविता का पन्ना अंगारा बनकर उसे पुन: दहका देगा। क्या मूर्खता का अंत होगा? कुमार अंबुज ने लिखा है कि ‘मूर्खता’ हर बात पर गर्व कर सकती है। इसे पहले योग्यता से जोड़ा गया, फिर रोजगार से, फिर राष्ट्रीय अभियान से, फिर परंपरा से। मूर्खता हर बात पर गर्व कर सकती है, अपनी अशिक्षा और इतिहास पर भी।
कथा फिल्म के हर दौर में विज्ञान फंतासी बनाई गई है, परंतु 1967 में स्टीवन स्पिलबर्ग, जेम्स कैमरून और साथियों ने इस विधा को नई ऊंचाई दी। गौरतलब यह है कि जेम्स कैमरून की ‘टाइटैनिक’ अपनी प्रेम कथा के कारण क्लासिक हो गई। ज्ञातव्य है कि प्रेम कथा का नायक साधनहीन वर्ग का है और नायिका उस अमीर खानदान की जो अपनी संपत्ति खो चुका है और कन्या के विवाह के माध्यम से कुछ संपत्ति प्राप्त करना चाहता है। वर्तमान दादा-दादी के मन बहलाने के लिए बच्चे कभी-कभी सांप सीढ़ी का खेल भी खेलते हैं। सांप सीढ़ी के खेल में शिखर के करीब पहुंची गोट सांप के मुंह में जाकर शून्य पर पहुंच जाती है। जीवन का अनिश्चित होना ही उसे रोचक बना देता है। समय के जामेजम (क्रिस्टल बॉल) में भविष्य जान लेना उसकी रोचकता को समाप्त कर देता है। जर्मन किंवदंती ‘द लीजेंड ऑफ कारमे’ में एक जिप्सी कन्या और सैनिक की दुखांत प्रेम कथा है। ए.आर. कारदार ने नलिनी जयवंत और सुरेश के साथ इससे प्रेरित ‘जादू’ नामक फिल्म बनाई थी। विज्ञान फंतासी फिल्में टेक्नोलॉजी के खिलौने हैं। बदलते दौर में खिलौनों के स्वरूप भी बदलते रहे हैं। हर सदी में बचपन के खिलौने बदलते रहे हैं। बचपन के गलियारे में मासूमियत की खोज कैसे करें? दुष्यंत कुमार और निदा फाजली कहीं भी उद्धृत किए जा सकते हैं, क्योंकि वे कबीर की परंपरा के कवि हैं। मौला बच्चों को गुड़-धानी दे, सोच-समझ वालों को थोड़ी सी नादानी दे।
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