इसी महीने में 42 साल पहले जब मैं 18 साल का हुआ था तो मेरे पिता ने मुझे जन्मदिन की बधाई दी थी और कहा था- ‘अब तुम्हें नौकरी तलाशनी चाहिए। मैं जो कर सकता था, कर चुका। आज से कुछ करने की और मुझ पर निर्भर न रहने की तैयारी शुरू कर दो। यानी अब तुम्हें कमाना शुरू करना पड़ेगा। अब से तुम्हारे भविष्य की पढ़ाई और जीवनयापन की जिम्मेदारी तुम पर ही है। मैं किसी से पैसे उधार नहीं लूंगा, क्योंकि मुझे यह पसंद नहीं है। बॉम्बे, मद्रास (जैसा कि इसे तब कहते थे) और दिल्ली में फैले अपने सभी चाचा-मामा और रिश्तेदारों की मदद लो और जिंदगी में गंभीर हो जाओ।’ उन्होंने मेरे कंधे पर थपकी दी और कहा ‘मैं जानता हूं तुम ऐसा कर लोगे।’
खुलकर कहूं तो उस दिन मुझे कुछ हो गया था। मेरी मां पूछती रहीं, ‘क्या हुआ, तुम कुछ खा क्यों नहीं रहे?’ लेकिन मैं जवाब न दे सका। मेरे अदंर से आवाज आई कि यह जिम्मेदार व्यक्ति की तरह व्यवहार करने का समय है। तब तक मेरे सामने एक ही हीरो था, मैं जिसकी नकल कर सकता था। ये मेरे पिता थे, लेकिन उनकी नकल करना मुश्किल था। मुख्यत: इसलिए क्योंकि कोई भी मौसम हो, वे सुबह 4 बजे उठ जाते थे और मैंने जब से उनका हाथ पकड़ चलना शुरू किया था, तब से सालों तक मैंने उन्हें रोजाना एक ही तरह से काम करते देखा था।
मेरी किस्मत अच्छी थी कि दो हफ्ते बाद ही फोन कर मेरे मामा ने नौकरी के लिए मुझे अपने शहर बुला लिया। हाथों में 600 रुपए लेकर मैंने नागपुर छोड़ दिया। वह पैसा मुझे सीने पर बोझ लग रहा रहा था, क्योंकि मुझे ऐसा लग रहा था कि मैंने पिता से कर्ज लिया है, हालांकि उन्होंने ऐसा कभी नहीं कहा। मैंने 18 घंटे के सफर में उसमें से एक रुपया भी खर्च नहीं किया और सिर्फ वही खाया जो मां ने रास्ते के लिए दिया था। फिर मैं बॉम्बे शहर में मामा के घर पहुंचा, वे वर्सोवा बीच के पास एक बिल्डिंग में तीसरी मंजिल पर रहते थे। ग्राउंड फ्लोर पर रहने वाले एक व्यक्ति ने मामा का अभिवादन किया और मामा ने मेरा परिचय कराया कि मैं उनका भांजा हूं जो नौकरी की तलाश में बॉम्बे आया है। उन सज्जन ने मेरी तरफ देखते हुए बस ‘हम्म’ कहा। मैं उनकी नजर और ‘हम्म’ का मतलब समझ सकता था। उसका मतलब था ‘ये लो, और एक बाहरी आ गया।’ उस समय मेरे आत्मसम्मान को ठेस पहुंची। शायद इसलिए क्योंकि उस समय शिव सेना इस आम भावना को भुना रही थी कि ‘बाहरी’ लोग मराठी बोलने वालों से नौकरियां और अवसर छीन रहे हैं और हमें तब नकारात्मक भाव से ‘मद्रासी’ कहा जाता था। मामा के घर नहाकर, खाना खाने के बाद मैंने कारण बताते हुए घर वापस जाने की इच्छा जाहिर की। इस राजनीतिक उठापटक के बीच रह चुके मेरे मामा ने शांति से कहा- ‘फिलहाल तुम्हारी महत्वाकांक्षा, तुम्हारे आत्मसम्मान से बड़ी होनी चाहिए। परिवार के बारे में सोचो, यहां रहने वालों को साबित करके दिखाओ के तुम इस शहर के लिए मूल्यवान हो।’ बाकी फिर इतिहास है।
काफी बाद में मुझे पता चला कि न केवल रोमांस के किंग शाहरुख खान शुरुआती दिनों में रेलवे स्टेशन पर सोए, बल्कि ऐसे कम से कम 12 अभिनेता हैं, जिन्हें कुछ बनने से पहले मुंबई में संघर्ष करना पड़ा। नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने तो बतौर चौकीदार भी काम किया।
अब सीधे आते हैं कोविड-19 के दौरान प्रवासी मजदूरों के मुद्दे पर। वे बस संपत्ति और पैसों के मामले में ही गरीब हैं। वे अपनी मेहनत से रोजाना अपने लिए खाना कमाते हैं, वे कभी खैरात के भरोसे नहीं रहते। यही वजह है कि वे अपने घर जाना चाहते हैं, ताकि वहां कुछ काम कर सकें। उनका सम्मान करें, क्योंकि वे महत्वाकांक्षा और आत्मसम्मान के मामले में अमीर हैं। हम नहीं जानते कि उनमें अगला शाहरुख कौन होगा।
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