‘मुझे लगता है जो लोग इस विकल्प का इस्तेमाल करना चाहते हैं उन्हें बाद में पछताना पड़ेगा। मेरे बच्चे हैं, नाती-पोते हैं। मैं कल उनसे आंख चुराना नहीं चाहती जब वो मुझसे ये पूछें कि आपने हमारे लिए क्या किया? हमारे भविष्य को बचाने के लिएआपने क्या संघर्ष किया?’
यूरोपियन सेंट्रल बैंक की प्रेसिडेंट क्रिस्टीन लगार्डे ने पिछले हफ्ते अंग्रेजीअखबार फाइनेंशियल टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में ये बात कही। लगार्डे ने ये तब कहा जब उनसे पूछा गया कि कोरोना महामारी से निपटने के नाम पर क्या दुनिया जलवायु परिवर्तन के खिलाफ मुहिम की बलि चढ़ा देगी?
जवाब में फ्रांसीसी राजनीतिज्ञ और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की प्रमुख रह चुकी क्रिस्टीन कहती हैं कि अगर हम जलवायु परिवर्तन से लड़ने की जिम्मेदारी को भूले तो आने वाली पीढ़ियां हमें कभी माफ नहीं करेंगी। अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी या खुद क्रिस्टीन अपनी कही बात के प्रति कितना वफादार रह पाएंगी, ये तो अभी बताना मुश्किल है लेकिन जो इरादा इस यूरोपीय नेता ने जताया है वह भरोसा दिलाता है। कम से कम भारत के लिए इस फलसफे की अभी बड़ी अहमियत है।
कोरोना से बड़ा अदृश्य संकट
कोरोना महामारी किसी धूमकेतु की तरह पूरी दुनिया में फैल चुकी है और भारत उसके सबसे बड़े शिकार देशों में है। कोरोना न केवल लोगों को बीमार कर रहा है बल्कि इस वायरस ने काम-धंधों और व्यापार को चौपट कर दिया है। ऐसे में दुनिया के अन्य देशों की तरह भारत के संसाधनों का बड़ा हिस्सा इस बीमारी से लड़ने में खर्च होगा।
लेकिन क्लाइमेट चेंज भी भारत के लिए कोई छोटा-मोटा संकट नहीं है। उसे उन देशों में भी गिना जाता है। उसकी गिनती जलवायु परिवर्तन को लेकर सबसे संकटग्रस्त देशों में होती है। मिसाल के तौर पर साल 2018 में एचएसबीसी की एक रिपोर्ट में दुनिया की 67 अर्थव्यवस्थाओं में भारत को सबसे अधिक खतरे में घिरा बताया गया। इससे पहले 2017 में भारत को दुनिया की छठी अर्थव्यवस्था घोषित किया गया जिसे क्लाइमेट चेंज का खतरा सबसे अधिक है।
इस रैंकिंग के पीछे मूल वजह है भारत की भौगोलिक स्थित। हिमालयी क्षेत्र में कोई दस हजार छोटे-बड़े ग्लेशियर, साढ़े सात हजार किलोमीटर लम्बी समुद्र तट रेखा और वर्षा पर आधारित कृषि। हमारी सेहत, खाद्य सुरक्षा और जीडीपी का सीधा रिश्ता प्रकृति से जुड़ा है। एक अमेरिकी साइंस पत्रिका में प्रकाशित रिसर्च में पता चला कि क्लाइमेट चेंज ने दुनिया के गरीब और विकासशील देशों को लगातार पीछे धकेला है। इस रिसर्च में दुनिया के पिछले 50 साल के आंकड़ों का अध्ययन किया गया जिससे पता चलता है कि ग्लोबल वॉर्मिंग ने दुनिया के गरीब देशों की आमदनी को 17 से 31 प्रतिशत तक कम किया है।
यह रिसर्च कहती है कि अगर ग्लोबल वॉर्मिंग के दुष्प्रभावों के कारण भारत की जीडीपी आज 30% कम है। बार-बार पड़ता सूखा, बाढ़, चक्रवाती तूफान और इससे बर्बाद होती खेती, लोगों के विस्थापन और आपदाओं से लड़ने में खर्च होने वाले संसाधन अदृश्य रूप से किसी कोरोना वायरस की तरह ही हमें धीरे-धीरे खोखला कर रहे हैं।
कोरोना लॉकडाउन के वक्त सड़क पर चलते गरीब मजदूरों की तस्वीरों ने हमें कम से कम इतना तो याद करा ही दिया कि कितनी बड़ी आबादी जीवन-यापन के लिए प्रति दिन संघर्ष कर रही है। यह क्रूर विरोधाभास है कि भारत की तरक्की का पहिया इन्हीं लोगों की ताकत से चलता है लेकिन इसी आबादी पर आपदाओं की सबसे पहली चोट पड़ती है। चाहे सूखा हो या कोरोना वायरस। यह भी महत्वपूर्ण है कि कोराना के फैलाव और ग्लोबल वॉर्मिंग के लिएजिम्मेदार कार्बन फुट प्रिंट के मामले में सबसे बड़े अपराधी सम्पन्न लोग हैं और भुक्तभोगी ये गरीब।
क्यों निर्णायक है ये लड़ाई?
भारत के लिएजलवायु परिवर्तन से लड़ाई इसलिएभी निर्णायक होनी चाहिएक्योंकि मामला क्लाइमेट चेंज के साथ प्रदूषण से भी जुड़ा है। हमारे कोयला बिजलीघर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद इमीशन के मानकों का पालन करने में नाकाम रहे हैं और इन कोल पावर प्लांट्स की चिमनियों से निकल रही जहरीली गैसें कई बीमारियां फैला रही हैं और नवजात शिशु और बच्चे इसके सबसे बड़े शिकार हैं।
भारत की अपनी रिसर्च बॉडी आईसीएमआर की रिपोर्ट कह चुकी है कि हर साल 10 लाख से अधिक लोगों की मौत के पीछे ऐसे ही बीमारियां हैं। महानगरों के साथ साथ दूरदराजके इलाके में रहने वाले बच्चों के फेफड़े और भविष्य इसकी भेंट चढ़ रहा है। ऐसे में क्रिस्टीन का यह सवाल आपके सामने आकर खड़ा हो जाता है कि जब हमारी अगली पीढ़ी हमसे पूछेगी कि हमने उनके लिएक्या किया तो हमक्या जवाब देंगे?
जलवायु परिवर्तन आकलन पर भारत की पहली रिपोर्ट पिछले महीने ही जारी हुई है। इस रिपोर्ट में साफ कहा गया कि इसी तरह से धरती का तापमान बढ़ता रहा तो सदी के अंत तक भारत में लू के थपेड़े तीन से चार गुना बढ़ सकते हैं और समुद्र जल स्तर में 30 सेंटीमीटर यानी एक फुट तक की बढ़ोतरी हो सकती है। क्या इंसान ऐसे हालात को झेल पाएंगे। कोलकाता, पुरी, विशाखापट्टनम, चेन्नई, त्रिवेंद्रम औरमुंबई जैसे शहरों का क्या होगा?
ऐसे में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मध्य प्रदेश के रीवा में एक विराट सोलर प्लांट का उद्घाटन करते हैं तो वह एक उम्मीद जगाने वाला कदम दिखता है। कार्बन फैलाने वाली डर्टी एनर्जी से दूर साफ हवा की ओर बढ़ता कदम। लेकिन फिर सरकार का कोयले से मोह (ताजाकोल ब्लॉक नीलामी) और पर्यावरणीय प्रभाव के आकलन (ईआईए) से जुड़े नियमों को कमजोर करने की कोशिश बताती है कि यहां चिन्ता सिर्फ एनर्जीसिक्योरिटी के लिएहै, प्रकृति को बचाने के लिएनहीं।
सवालों के घेरे में पूंजीवाद?
अभी कोरोना हम पर अचानक तबाही बरपाता दिख रहा हो लेकिन ग्लोबल वॉर्मिंग का संकट तो कई दशकों से दीमक की तरह हमें हर स्तर पर चाट रहा है और तरक्की के लिएउठाए जा रहे सारे कदमों को बेअसर कर रहा है। इसीलिएदुनिया में यह बहस तेजहो रही है कि कोरोना से जंग जलवायु परिवर्तन से निपटने की कीमत पर नहीं होनी चाहिए। यहीं से एक महत्वपूर्ण सवाल आर्थिक नीतियों को लेकर उठता है। क्या वैश्वीकरण या बाजारीकरण की दौड़ ही संपूर्ण विकास को परिभाषित करती है?
पिछले राष्ट्रपति चुनावों में डोनाल्ड ट्रम्प ने क्लाइमेट चेंज को चीन और भारत जैसे विकासशील देशों का खड़ा किया हौव्वा बताया और सत्ता में आते ही अपने देश को एतिहासिक पेरिस समझौते से बाहर कर लिया। उनके साथी ब्राजील के जायर बोल्सनारो इससे एक कदम आगे निकल गए और उन्होंने अपने देश में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन होने ही नहीं दिया।
ट्रम्प के राज में प्रदूषण फैलाने वाली पेट्रोलियम कंपनियों की बहार आ गई तो बोल्सनारो की छाया तले अमेजन के जंगल धू-धू कर जलते रहे। फिर भी इन नेताओं ने कोई पश्चाताप नहीं जताया और अब जब कोरोना वायरस का हमला हुआ तो इन दोनों बड़बोले नेताओं की नीतियां धराशायी हो गईं। आज कोरोना के शिकार दो शीर्ष देश यही हैं। दुर्भाग्य से तीसरा नंबर भारत का है जिसके लिए इस संकट ने स्पष्ट आर्थिक सबक तय कर दिए हैं।
निजीकरण और बाजारवाद की प्रबल समर्थक सरकार को समझ आना चाहिए कि सरकारी संस्थान कितने महत्वपूर्ण हैं। रिसर्च, एजुकेशन, हेल्थ और मैनेजमेंट से लेकर बैंकिंग तक हिन्दुस्तान के सबसे बेहतरीन और मजबूत संस्थान सरकारी ही हैं। कोरोना संकट से लड़ने में सरकारी अस्पताल– चाहे वो जिस हालत में भी हों और सरकारी डॉक्टर-नर्स ही काम आ रहेहैं। दुनिया के जिन देशों में सामाजिक सुरक्षा का ढांचा मजबूत है और जनहित के मामलों में सरकार का पर्याप्त नियंत्रण हैवहां कोरोना महामारी से कहीं बेहतर तरीके से लड़ा जा रहा है।
दुनिया में पूंजीवाद के प्रबल समर्थक भी सेफगार्ड्स की अहमियत समझ रहे हैं। प्रकृति का क्रोध और संभावित चोट तमाम रिसर्च और विशेषज्ञ रिपोर्टों की शक्ल में हमारे पास मौजूद है, लेकिन क्या वजह है कि हम कोरोना संकट जैसे विपत्तियों के आने पर भी अपनी आंखें बन्द रखना चाहते हैं। यह एक सुखद संयोग ही है कि दुनिया की भर की महिला नेताओं ने इस सच को समझा है और जरूरी कदम उठाने के लिए प्रतिबद्ध दिख रही हैं। इसीलिएजब पूंजीवादी संस्थानों की प्रमुख रह चुकी क्रिस्ट्रीन भी कहती हैं कि व्यापार और व्यापार ही सब कुछ नहीं है तो उसमें समझदारी की एक स्पष्ट संदेश झलकता है।
कोरोना वायरस आजकल में खत्म होने वाली समस्या नहीं है, बल्कि यह लम्बे वक्त तक टिके रहने वाली चुनौती है जो हमारी जीवन शैली को बदल रही है लेकिन यही चेतावनी अपेक्षाकृत सौम्य तरीके से प्रकृति हमें जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वॉर्मिंग के रूप में पहले से देती रही। हमने उस अलार्म बेल को न केवल नजरअंदाजकिया बल्कि उसका मखौल उड़ाया। यह इंसान की आत्मघाती फितरत ही है जिसके हम शिकार हुएहैं और हमारी नियति अब हमें घूर रही है।
हृदयेश जोशी पत्रकार है। वह पर्यावरण, ऊर्जा और जलवायु परिवर्तन पर लिखते हैं।
Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
from Dainik Bhaskar https://ift.tt/2CqcJJm
No comments:
Post a Comment